लिखने के लिए धुँध में डूब जाना पड़ता है ..
कोहरे से पानी का घूँट माँगते माँगते
प्यास को अपनाना पड़ता है..
मछलियों के लिए फेंके हुए जाल में फँस कर ..
एक आख़िरी लम्हा कुरेद कर
ज़िंदगी को विदा करना पड़ता है..
मारना पड़ता है अपने अंदर का भगवान..
अंत में जब आती है वो कश्ती
जो दरिया पार करा दे ..
कश्ती से कहीं ज़्यादा फ़िर
दरिया बेहतर लगने लगता है ..
उस दरिया में बहते हुए लम्हे
क़लम की आँखों में लबरेज़ हो कर..
एक कोरे काग़ज़ के चेहरे पर
उतरते जाते हैं..
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